Book Details | |
Book Author | Dr. Mahesh Singh |
Language | Hindi |
Book Editions | First |
Binding Type | Hardcover |
Pages | 232 |
Publishing Year | 2024 |
आज के सिनेमा का दर्शक, यथार्थ को बहुत करीब से देखना चाहता है । उसकी आँखें लपलपाती हुई जीभ की तरह हर एक पल का सुख भोग लेना चाहती हैं। सिनेमा व्यवसाय के बाजीगर इस बात को अच्छी तरह समझते हैं. नतीजतन, किसी भी फिल्म को उठा लीजिये और उसमे फिल्माए गए नायिका के रोमांटिक सीन को देखिये. पाएंगे, कि कैमरा नायिका के चेहरे और उसके अभिनय से ज्यादा उसकी कमर, जाँघ और छाती के इर्दगिर्द ही अधिक समय तक टिका रहता है; न सिर्फ टिका रहता है, बल्कि क्लोजप भी देता है। यह अनायास नहीं कहा जा सकता, बल्कि आजकल का नया दर्शक क्या देखना चाहता है उसका परिणाम है। फायदा के खिलाड़ियों की टीम लगातार इसका अध्ययन करती रहती है। इसे व्यक्तिगत रूप से जाँचा जा सकता है। इसके लिए youtube पर छोटा-छोटा दो वीडियो अपलोड कीजिये । एक में उद्दात कला का सीन रखिये और दूसरे में 'कुण्डी न खड़काओ राजा, सीधा अन्दर आओ राजा' जैसा सीन । कुछ दिन बाद दोनों का व्यू देखिये। आज के दर्शक के टेस्ट का पता चल जायेगा । दर्शक के इसी टेस्ट का उन्हें अंदाजा है । अतः कैमरे के सामने प्रस्तुत कला को ये 'फायदा चाहने वाले' लोग प्रभावित करने लगे हैं। बकौल जवरीमल्ल पारख - बाजार की ताकतें इस बात का प्रचार करती हैं कि सिनेमा एक लोकप्रिय माध्यम है, जिसका मुख्य कार्य मनोरंजन प्रदान करना है । उसकी सार्थकता उसके लोकप्रिय होने और मनोरंजन प्रदान करने में ही है । लेकिन फिल्मों की लोकप्रियता फिल्म की अंतर्वस्तु और उसकी कलात्मक अभिव्यक्ति पर नहीं, बल्कि ऐसे बाहरी तत्वों पर ज्यादा निर्भर रहती है, जिनका फिल्म की गुणवत्ता से प्रत्यक्षतः कोई सम्बन्ध नहीं होता. मसलन, अभिनेताओं की 'मर्द' छवि, अभिनेत्रियों के 'यौन सौन्दर्य' हिंसा के उत्तेजक दृश्य, नृत्य और संगीत का उन्मादपूर्ण इस्तेमाल इत्यादि लोकप्रिय सिनेमा के अनिवार्य तत्व बन गए हैं।